यहूदी और ईसाई धर्म का इतिहास

यहूदी धर्म और ईसाई धर्म
तुम अब तक प्राचीन भारत, ईरान, चीन, यूनान और इटली के जनगणों के धर्मों और धार्मिक विश्वासों के बारे में पढ़ चुके हो। इनमें से कुछ धर्म, उदाहरण के लिए बौद्ध धर्म अपनी जन्मभूमि से बाहर दूर देशों में फैले और उन्होंने अनेक देशों की जीवन और
संस्कृति को प्रभावित किया। प्राचीन काल में पश्चिम एशिया में दो प्रमुख धर्मों का उदय
हुआ और उन्होंने विश्व इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। ये हैं: यहूदी धर्म
और ईसाई धर्म। इन दोनों धर्मों का जन्म फिलिस्तीन में हुआ।

यहूदी धर्म

यहूदी धर्म यहूदियों अथवा हिब्रू लोगों का धर्म है। हिब्रू लोग अब्राहम के नेतृत्व में मैसोपोटामिया में रहते थे। वहाँ से वे धीरे-धीरे फिलिस्तीन जा बसे। जब फिलिस्तीन में दुर्भिक्ष पड़ा तो 1700 ई. पू. के बाद बहुत से हिब्रू कबीले मिस्र चले गए। जब मिस्र
के शासक ने उन पर बहुत अत्याचार किए तब वे ई.पू. की 13 वीं शताब्दी में मूसा के नेतृत्व में फिलिस्तीन चले गए। मूसा के पहले हिब्रू कबीलों के अनेक देवता थे। मूसा ने विभिन्न कबीलों को संगठित किया। उन लोगों ने एक देवता के रूप में यहवे या जेहोवा को अपना भगवान माना। यहूदियों का विश्वास है कि स्वयं ईश्वर ने मूसा के माध्यम से दस उपदेश दिए थे। इन उपदेशों में एक ईश्वर में आस्था प्रकट की गई है। साथ ही विशिष्ट प्रजा ‘, जैसा कि हिब्रू अपने आपको कहते हैं, के जीवन को निर्देशित करने वाले नियमों के प्रति भी इन उपदेशों में आस्था प्रकट की गई है।
फिलिस्तीन में हिब्रू लोगों ने राजतंत्रात्मक शासन पद्धति वाले एक संयुक्त राज्य की स्थापना की। इस राज्य की राजधानी जरुसलम में बनाई गई। एक रोचक बात यह है कि जरुसलम नगर संसार के तीन बड़े धर्मों के लिए पवित्र भूमि बन गया।। ये तीनों हैं-यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म। हिब्रू राजाओं में सॉलोमन बहुत विख्यात है। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार वह बहुत बुद्धिमान और न्यायी राजा था। हिब्रुओं का सयुक्त राज्य आगे चल कर दो राज्यों में बँट गया-इजरायल और जूदा। इ. पू.की छठी शताब्दी तक दोनों राज्यों को अधीन किया जा चुका था-इजरायल को असीरियाइयो अब
द्वारा और जुदा को बाबुल वालों द्वारा। बाद के वर्षों में फिलिस्तीन पर पहले ईरानियों द्वारा और बाद में सिकदर द्वारा कब्जा किया गया। आगे चलकर वह रोम के प्रभाव क्षेत्र वि थे में यहूदियों आ गया की एक और 70 बड़ी ई संख्या. में रोम ने फिलिस्तीन सम्राज्य का छोड़ एक दिया प्रदेश बन और गया वे संसार। इस के काल विभिन्न अवधि भागों जा बसे।

धार्मिक विश्वास

यहूदी धर्म की बुनियादी शिक्षा एक ईश्वर में विश्वास है। यह ईश्वर यहवा है जो अपनी प्रजा से प्रेम करता है कितु जब वे कुमार्ग पर चलते हैं तो उनसे बदला लेता है। यहूदियों के कुछ परवर्ती धर्मोपदेशकों (पैगंबरों) ने कहा कि ईश्वर मानव मात्र से प्रेम करता है और पश्चाताप करने वाले पापी को क्षमा कर देता है।। यहूदी धर्म न्याय, दया और विनम्रता सिखाता है। यहूदियों का एक महत्वपूर्ण विश्वास यह है कि उनको पवित्र करने और संसार को पाप एवं दुष्टता से मुक्त कराने के लिए मसीहा (त्राणकर्ता) एक दिन पृथ्वी
पर अवतरित होगा। ईसाइयों का विश्वास है कि ईसा ही यह ‘ मसीहा थे और इसी से वे ईसा को’ क्राइस्ट ‘ या खीष्ट और’ मसीह ‘कहते हैं। किंतु यहूदियों का विश्वास है कि मसीहा ने अभी तक जन्म नहीं लिया है। यहूदी धर्म ने ही परवर्ती एकेश्वरवादी ईसाई और मुस्लिम धर्मों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।

हिब्रू (यहूदियों के) धर्मग्रंथ

वे विभिन्न कृतियाँ ही जो’ ओल्ड डेस्टामेंट ‘ और’ ऐपोकृफा ‘ का निर्माण करती हैं, यहूदियों की पवित्र धर्म-पुस्तकें हैं। इन पुस्तकों में यहूदियों का इतिहास है और वह धार्मिक-नैतिक नियमावली है जिसका उन्हें पालन करना चाहिए। इनमें पुराण, आख्यान और कविताएँ तो हैं ही साथ ही चिकित्सा और ज्योतिष की बातें भी हैं। ये पुस्तकें यहूदियों और ईसाइयों
दोनों के लिए पवित्र व पूज्य हैं।

ईसाई धर्म

ईसाई धर्म के संस्थापक जीसस एक यहूदी थे। उनका जन्म जरुसलम के निकट बैथलहम नाम स्थान पर हुआ था। उनकी माता का नाम मेरी था। जीसस के जीवन के पहले शब्दों 30 से समझ वर्षों के विषय में हमारा ज्ञान बहुत अपूर्ण है।इस समय वे अपना उपदेश शीधे साधे शब्दो में कहानियों के द्वारा दिया करते थे। उनके इन उपदेशो को साधारण व्यक्ति सरलता से समझ लेते थे। वे बहुत से रोगों की चिकित्सा भी सरलता पूर्वक कर लेते थे। इस बात की सब जगह प्रसिद्धि हो गई। उनके सादा जीवन, आकर्षक व्यक्तित्व, सबके लिए अत्यधिक और सहानुभूति के कारणं बड़ी संख्या में लोग उनके अनुयायी हो गए।
जीसस निर्भीक होकर उन बातों की कटु आलोचना करते थे जिन्हें वे बुरा समझते थे। इस कारण बहुत से धनी और प्रभावशाली लोग उनके शत्रु हो गए। इन लोगों ने फिलिस्तीन के रोमन गवर्नर पोण्टियस पाइलेट से जीसस के विरुद्ध शिकायत की कि जीसस अपने को यहूदियों का राजा कहता है। और इस प्रकार यहूदियों को रोमन शासकों के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए भड़का रहा है। इस पर जीसस को बंदी बना लिया गया और, उन्हें क्रॉस पर प्राणदंड दिया गया। इसी कारण ईसाई क्रॉस को पवित्र चिह्न मानते हैं। ईसाइयों का विश्वास है कि क्रॉस पर बलिदान होने के तीसरे दिन जीसस जीवित हो गए। इसी को मृत्यु के बाद पुनर्जीवित कहा जाता है। प्रति वर्ष इसी घटना की स्मृति में ईसाई लोग ईस्टर का त्यौहार मनाते हैं। ‘ गुड फ्राइडे’ वह दिन समझा जाता है, जिस दिन जीसस की मृत्यु हुई थी। ऐसा विश्वास किया जाता है कि पुनर्जीवन के बाद चालीस दिन तक वे अपने मित्रों व शिष्यों के बीच में रहे और अंत में स्वर्ग चले गए। बड़े दिन को ईसाई उनके जन्म के उपलक्ष्य में मनाते हैं। ईसाई संवत् 1 ईसवी से प्रारंभ होता है। परंपरा के अनुसार इसे जीसस के जन्म का वर्ष माना जाता है। ए. डी. अर्थात् एनो डोमिनी का अर्थ है स्वामी के संवत् में। सत्य तो यह है कि जीसस के जन्म की तिथि निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। कुछ विद्वानों। बी. सी. का अर्थ का मत है कि जीसस का जन्म 1 ईसवी से कुछ वर्ष पूर्व हुआ था है बिफोर क्राइस्ट,अर्थात् ईसा से पूर्व। हम ईसा के जन्म से पूर्व की तिथियों को बी.सी. (ई.पू.) लिखकर प्रकट करते हैं।
जीसस बहुधा ईश्वर के राज्य की चर्चा किया करते थे इससे उनका यह अभिप्राय था कि पृथ्वी पर ईश्वर की सत्ता ही सबसे अधिक बलवती है। वे कहते थे कि ईश्वर का राज्य शीघ्र की स्थापित होने वाला है और मनुष्य ईश्वर प्रेम से पवित्र होकर और उसमें पूर्ण आस्था रखकर उस ईश्वर के राज्य की स्थापना कर सकता है। वे ईश्वर को पिता और अपने को ईश्वर का पुत्र कहते थे। वे मनुष्य मात्र से प्रेम करते थे। मनुष्यों
को अपने पड़ोसियों से प्रेम करने की शिक्षा देते थे।ईसाई धर्म के अनुसार इस पृथ्वी पर जीसस क्राइस्ट का जन्म ईश्वर का उद्देश्य पूरा करने के लिए हुआ था। मनुष्यों का पाप से उद्धार करने के लिए वे इस संसार
में रहे और इसीलिए उन्होंने अत्यंत कष्टपूर्ण मृत्यु झेली। ईसाइयों का विश्वास है कि जीसस मृत्यु के पश्चात् भी जीवित रहे। इसीलिए उन्होंने सब मनुष्यों को आशा दिलाई कि जो कोई पापों के लिए पश्चाताप करेगा और ईश्वर कृपा के लिए प्रार्थना करेगा
उसकी ईश्वर अवश्य रक्षा करेंगे।
जीसस की सीधी-सादी शिक्षाएँ मनुष्यों के हृदयों में घर कर गई। उन्होंने उनमें
नवीन आत्म-विश्वास और साहस का संचार किया। धीरे-धीरे रोम में ईसाई धर्म का प्रचार
बढ़ा और सेंट पीटर गिरजाघर का बड़ा पादरी इस संसार में जीसस क्राइस्ट का प्रतिनिधि माना जाने लगा। ईसाई लोग उसे पोप अर्थात् पिता कहने लगे।
कहा जाता है कि रोम का सम्राट कास्टेटाइन भी ईसाई बन गया। चौथी शताब्दी
के अंत तक ईसाई धर्म रोम के साम्राज्य का धर्म बन गया था। इस समय तक ईसाई
चर्च का संगठन धर्मतंत्रात्मक रीति से होने लगा था।

इंजील अथवा बाइबिल

ईसाइयों की धर्म-पुस्तक ‘ बाइबिल’ अथवा ‘ इंजील’ है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘ पुस्तक’। इंजील के दो मुख्य भाग हैं। पहले भाग में जिसे ओल्ड टेस्टामेण्ट कहते हैं, यहूदियों के धार्मिक विश्वासों का इतिहास है। न्यू टेस्टामेण्ट में जीसस क्राइस्ट का जीवन चरित्र और शिक्षाएँ दी हुई हैं। इंजील पहले यहूदियों की भाषा हिब्रू में लिखी गई थी। बाद में इसका यूनानी भाषा में अनुवाद किया गया। इंजील का अंग्रेजी अनुवाद, जिसका अब साधारणतया सर्वत्र प्रयोग किया जाता है, सत्रहवीं सती के शुरू में इंग्लैंड के राजा जैम्स
प्रथम की आज्ञानुसार तैयार किया गया था।
ठीक-ठीक यह कहना संभव नहीं कि मानव इतिहास का प्राचीन काल कब समाप्त हो गया। आम तौर पर यह कहा जा सकता है कि प्रथम सहस्राब्दि ई. के उत्तरार्द्ध के दौरान विश्व के अनेक भागों के सामजिक-आर्थिक जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन होने लगे। वे परिवर्तन इतने दूरगामी थे कि कहा जा सकता है कि उन्होंने इतिहास में एक नया युग आरंभ किया। मगर वे न तो एक समान थ और न ही सारे संसार में उनकी रफ्तार एक सी थी। तुम देख चुके हो कि पश्चिम में रोमन साम्राज्य बर्बर लोगों के आक्रमणों के कारण किस प्रकार नष्ट हो गया। दास-प्रथा भी, जो रोम की सभ्यता की एक विशेषता थी, लुप्त हो गयी। कुछ अन्य क्षेत्रों में जो परिवर्तन हुए वे इतने स्पष्ट नहीं थे कि अतीत से उन्हें उसी तरह अलग कर दें जैसा रोमन सभ्यता के संबंध में देखा गया था। परंतु परिवर्तनों का जो भी स्वरूप और उनकी जो भी रफ्तार रही हो, लगभग 500 ई. के बाद जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्थाएँ उदित होने लगीं वे पिछले काल
की अपेक्षा बिलकुल भिन्न थीं। कुछ क्षेत्रों में प्राचीन सभ्यताओं की उपलब्धियाँ आगे के विकास का आधार बनीं। दूसरे क्षेत्रों, जैसे पश्चिमी यूरोप में यूनानी और रोमन सभ्यताओं की उपलब्धियों को भुला दिया गया। उन्हें लगभग एक हजार वर्ष बाद ही फिर ढूंढ निकाला गया। अगले काल में सभ्यता के अनेक नये केंद्र विकसित हुए। प्राचीन सभ्यताओं की कुछ उपलब्धियों को सभ्यता के इन नये केंद्रों की संस्कृतियों में समाविष्ट कर लिया गया और वहाँ से अन्य क्षेत्रों को दिया गया।