कोरोना और अनाथ बच्चों के हालात

कोरोना का कहर और अनाथ बच्चों के हालात

दुनिया में कोरोना का पहला मरीज मिले 1 साल से ज्यादा हो गया। तब से लेकर आज तक कोरोना दुनिया भर के करोडो लोगो को अपनी चपेट में ले चुका है और लाखों लोग कोरोना की वजह से अपनी जान गवा चुके है।

दुनिया के ज्यादातर देश में कोरोना वायरस की वजह से लॉकडाउन लगाना पड़ा। लोगो का बाहर निकलना सरकार को बंद करना पड़ा, सारे काम धंधे बंद करने पड़े जिसकी वजह से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था चरमरा गई । दुनिया भर में करोडो लोग बेरोजगार हो गए। अकेले भारत में ही 13 करोड़ से ज्यादा लोग बेरोजगार हो गए ऐसा अनुमान लगाया गया है।

पूंजी पतियों को आर्थिक रूप से नुकसान तो बहुत हुआ पर रोजमर्रा की खर्च चलाने में परेशानी नही हुयी, वहीँ छोटे कामगारों, मज़दूरों, छोटे दुकानदारों, किसान, और रोज कमाने रोज खाने वाले लोगों को लॉकडाउन में घर चलाने में भारी मुसीबत झेलनी पड़ी।

सबसे ज्यादा दिक़्क़त सड़क पर रहने वाले बेघर लोगो को हुयी, भीख मांगने वाले लोग, सड़क पर रहने वाले अनाथ बच्चे और बृद्ध लोगो का जीना ही मुश्किल हो गया । इनकी जिन्दगी सड़क पर चलने वाली भीड़ के द्वारा दिए भीख पर ही निर्भर थी, लॉक डाउन के वजह से सड़के ख़ाली हो गयी, जिससे कारण इनको एक वक्त की भी रोटी मिलना मुश्किल हो गया है,

इनकी हालत बद से बदतर हो गयी, भारत और दुनिया भर के बिभिन्न क्षेत्रो में ऐसे लोग आत्महत्या तक करने पर मजबूर हो गए।

कोरोना के दौरान अनाथ बच्चों के हालात

सड़क पर रहने वाले बच्चों जिनका कोई नही होता या जो किसी वजह से अपने घर से अपने माता पिता से बिछड़ जाते है, न रहने का घर होता है, न कोई देख भाल करने वाला होता है इनकी जिन्दगी सामान्य परस्थिति में भी दयनीय होती है, लॉकडाउन ने तो इनकी जिन्दगी पर और ब्रेक लगा दिया।

कोरोना काल में इनकी ज़िन्दगी सबसे ज्यादा संकट में थी, एक तो सड़क पे होने के कारण और दूसरा बच्चा होने के कारण कोरोना से संक्रमित होने का खतरा इनको सबसे ज्यादा था।

कोरोना के पहले दुनिया भर के अलग अलग देशो में किये गए एक सर्वे के अनुसार यह आंकड़ा लगाया गया कि हर दिन लगभग 20 हजार बच्चे अच्छा खान पान न होने के कारण मौत के मुंह में चले जाते है। जिनमे से ज्यादा तर बच्चे सड़क पर रहने वाले, भीख मांगने वाले , कूड़ा बीनने वाले, और अनाथ होते है, जिनकी उचित देख भाल और उचित खान पान न होने कारण छोटी उम्र में ही दुनिया छोड़ देते है। कोरोना आने के बाद से ये आंकड़ा अत्यधिक तेजी से बढ़ा है। लॉक डाउन में हजारों बच्चे कोरोना वायरस से तो बच गए लेकिन भूख ने उनकी जान ले ली, लॉक डाउन में भूख से हुए मौत का जो भी आंकड़ा सरकार के पास है, असल में उससे कहीं ज्यादा लोग भूख के वजह से मर गए है, जिनमे ज्यादातर बच्चे और बूढे सामिल है। लॉक डाउन में सड़क पर रहने वाले बच्चों को भीख, या छोटा मोटा काम मिलना बंद हो गया, जिससे इनकी ज़िन्दगी की गाड़ी ठप्प हो गयी और लॉक डाउन में इनका सरवाइब करना मुश्किल हो गया ।।।।

इनकी जिन्दगी कैसे सुधारा जाये

ये बहुत चिंता का विषय है, सरकार इनके लिए उचित कदम उठा रही है पर वो काफी नही है, जब तक सड़क पर रहने वाले बच्चों को किसी उचित स्थान पर नही रखा जाता और उनके अच्छे खान पान के साथ साथ अच्छी शिक्षा की व्यवस्था नही हो जाती, तब तक इनका जीवन सुधारा नही जा सकता।

हमें चाहिये कि हम अपने आस पास के ऐसे बच्चों को जितना हो सके उतना मदद करें। हमारी एक मदद इनकी जिन्दगी बदल सकता है।।।

S उपाध्याय

मुम्बई में बेघर लोग

मुम्बई में बेघर लोग

भारत के महाराष्ट्र राज्य की राजधानी मुंम्बई में 57415 से ज्यादा लोग बेघर है 2011 की जनगड़ना के अनुसार

लेकिन बीएमसी के एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार महाराष्ट्र में कुल 21000 लोग बेघर है जिनमे से  11,915 लोग मुम्बई में है।

यह आंकड़ा चौकाने वाला है क्यूँ की 2011 की जनगड़ना के आँकड़े और बीऍमसी के आंकड़ों में जमीन आसमान का अंतर था।

बीऍमसी के द्वारा जारी किये गए आँकड़े सत्यता पर खरे नही उतरते बल्कि  2011 की जनगणना के अनुसार, मुंबई में 57,415 से अधिक बेघर लोग हैं, लेकिन ये भी वास्तविक आंकड़ा कई गुना अधिक हो सकता है। इन बेघर लोगों के लिए, प्रत्येक दिन पहचान, नागरिकता और सम्मान के लिए संघर्ष है।और रात? झुलसने वाले वाहनों और टिमटिमाती स्ट्रीटलाइट्स के बीच बस एक लंबा इंतजार है। 

काम धंधे

सड़को पर ज्यादा तर रहने वाले लोग चोर, भिखारी, नशा करने वाले और दुराचारी हैं, बेघर मुंबई की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था से गहराई से बंधे हैं। सस्ते श्रम के रूप में यह उनका योगदान है जो शहर को बनाता है।

अधिकांश महिलाऐ लोगो के घरो में साफ सफाई, रसोइयों और अपशिष्ट बीनने का काम करती है, जो प्रति दिन 60 से 70 रु. की कमाई करते हैं। पुरुष निर्माण श्रमिकों, दुकानों और गैरेज में सहायकों, संविदात्मक रूढ़िवादी श्रमिकों या अपशिष्ट रीसाइक्लिंग उद्योग में काम करते हैं। उनका काम काफी हद तक अनौपचारिक, अनियमित और मौसमी है, जिसमें नियत दैनिक आय का कोई आश्वासन नहीं है और आपात स्थिति के लिए बचत करने के लिए पर्याप्त नहीं है। मानसून का मौसम सबसे खराब होता है। लगभग कोई काम नहीं और बचत के साथ, कई परिवार दिनों के लिए पर्याप्त रूप से नहीं खाते हैं। औसतन, दो कमाने वाले सदस्यों के साथ एक बेघर परिवार रोजाना लगभग 150 रुपये कमाता है – बमुश्किल ही पूरा होता है।

ताजा स्थिति

होमलेस कलेक्टिव के बृजेश आर्य ने एक प्रमुख दैनिक में इस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि जैसा कि 2011 की जनगणना और नवीनतम सर्वेक्षण में बेघर लोगों की संख्या में बहुत अंतर है। उन्होंने 

यह भी कहा कि यह सर्वेक्षण उस तरह से नहीं किया जा सकता है जिस तरह से होना चाहिए था। उन्हें सरकार के साथ चर्चा करने की जरूरत है। उनका एकमात्र उद्देश्य बेघर लोगों को आश्रय देना है और ये संख्याएँ बेघर लोगों की सटीक जानकारी के लिए उपयोगी हैं।

Supadhyay